2018 में नेहा यादव गुड़गांव में सारथी सीआरएम - जो विभिन्न विकलांगता पेशेवरों को काम पर रखता है, प्रशिक्षित करता है और उनको आगे बढ़ाता है - के पहले कुछ कर्मचारियों में से एक थीं, जो सभी नेत्रहीन या दृष्टिबाधित थे। ऋचा बंसल, जिन्होंने उस वर्ष सारथी की स्थापना की थी, याद करती हैं कि कैसे नेहा ने दिल्ली में नेशनल एसोसिएशन फॉर द ब्लाइंड (NAB) में बुनियादी कौशल और कंप्यूटर में प्रशिक्षण प्राप्त किया था। उनकी माँ सुनीता यादव उन्हें हर दिन ऑफिस छोड़ती थीं और शाम को उन्हें वापस ले जाती थीं।
लगभग दो साल तक अपनी माँ के साथ रहने के बाद, एक दिन नेहा अपने आप आ गईं। ऋचा याद करती हैं, “मुझे उसपर बहुत गर्व हुआ और खुशी हुई।” “वो एक ऐसे इंसान का उदाहरण हैं जो आश्रित से विकसित होकर आज सभी पहलुओं में वास्तव में आत्मनिर्भर हैं। हमेशा बोलने और व्यवहार में बेहद संतुलित और आत्मविश्वासी, वे हमारी ट्रॉफी कर्मचारी बन गई, धीरे-धीरे टेली-सेल्स से रिक्रूटर की भूमिका में आ गई। आज वे स्वतंत्र रूप से हमारे बड़े ग्राहकों के लिए सभी प्रकार की नौकरियों में भर्ती का काम संभालती है।”
नेहा, जो अब 30 वर्ष की हैं, को आज आत्मनिर्भर व्यक्ति बनने से पहले एक लंबा और कांटेदार रास्ता तय करना पड़ा। कम दृष्टि के कारण बचपन में वे चश्मा पहनती थीं, लेकिन 10वीं कक्षा में आते-आते उनकी दृष्टि कमज़ोर होने लगी। किसी तरह से उन्होंने 10वीं की बोर्ड परीक्षा पास की और कॉमर्स में दाखिला लेकर 11वीं में आ गईं। हालाँकि तब तक उनकी दृष्टि इतनी सीमित हो गई थी कि वे अपनी पाठ्यपुस्तकों को पढ़ने के लिए मैग्निफ़ाइंग ग्लास का इस्तेमाल करती थीं। कम नंबरों से 12वीं कक्षा पास करने के बाद उन्होंने बी.कॉम करने के लिए कॉलेज में दाखिला लेने की कोशिश की, लेकिन डॉक्टरों ने उन्हें लाइलाज़ और 100 प्रतिशत अंधा घोषित कर दिया, जिसके कारण उन्हें पढ़ाई छोड़नी पड़ी; उनकी ऑप्टिक नर्व क्षतिग्रस्त हो गई थी।
नेहा का दिल टूट गया था। उन्होंने लगभग ढाई साल अपनी सभी ज़रूरतों के लिए अपने माता-पिता या भाई-बहनों पर पूरी तरह से निर्भर रहते हुए बिताए, और वे याद करती हैं कि "रोना-धोने के अलावा कुछ नहीं करती थीं"। धीरे-धीरे पढ़ाई में उनकी रुचि वापस आई। हर रविवार को एक प्रशिक्षक उन्हें सिखाने के लिए घर आते थे। उनके पिता अशोक यादव ने, जो मार्केटिंग में काम करते थे, उन्हें एक लैपटॉप दिलवाया ताकि वे ई-बुक्स पढ़ सकें। उन्होंने मोबाइल और उसके टॉकबैक विकल्प का उपयोग करना सीखा। वे प्राइमरी स्कूल की टीचर बनने के उद्देश्य से प्रारंभिक शिक्षा में डिप्लोमा करने के लिए एमिटी इंस्टीट्यूट ऑफ एजुकेशन में शामिल हो गईं। एक सहायक लेखक की सहायता से उन्होंने अपने पेपर दिए और 75 प्रतिशत अंक प्राप्त किए।
लगभग 2016 में अशोक को NAB और कौशल प्रशिक्षण प्रदान करने वाले इसके आवासीय कार्यक्रम की जानकारी देने वाला एक पैम्फलेट मिला। वे नेहा को अकेले हॉस्टल में रहने के लिए छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे, लेकिन सुनीता उनका समर्थन करती थीं, और इसपर अक्सर दोनों के बीच बहस होती थी। अंत में वे एक समझौते पर पहुँचे और नेहा को हॉस्टल में भर्ती कराया। उन्होंने प्रशिक्षण शुरू किया, लेकिन शुरुआती दिक्कतों का सामना करना पड़ा क्योंकि उन्हें पढ़ने के बजाय सुनने पर ध्यान केंद्रित करना पड़ता था। उन्होंने लगभग हार मान ली थी, लेकिन ‘रजनी मैम’ ने उन्हें जारी रखने के लिए प्रोत्साहित किया।
जिस चीज़ ने उनके जीवन को मौलिक रूप से बदल दिया, वो हौज खास में NAB सेंटर फॉर ब्लाइंड वीमेन एंड डिसेबिलिटी स्टडीज में छह महीने का आवासीय कार्यक्रम था। प्रत्येक बैच में 25 महिलाएं थीं। उन्हें खाना पकाने और बेकिंग से लेकर योग और अंग्रेजी संचार तक सब कुछ सिखाया गया। सुपरवाइज़र उन्हें आटा गूंथने, सब्ज़ियाँ काटने, मेज़ साफ करने और बर्तन धोने जैसे काम सौंपते थे। नेहा ने सफ़ेद छड़ी का इस्तेमाल करके मेट्रो में चढ़ना और सड़क पार करना सीखा और ज़रूरत पड़ने पर छड़ी को चाबुक की तरह इस्तेमाल करना भी सीखा। जब सारथी संगठन लोगों को भर्ती करने के लिए आया तो वे इंटरव्यू देने के लिए तैयार थीं।
आज नेहा एक ऑटो का इस्तेमाल करती हैं जो उन्हें नियमित रूप से घर से लाता - लेजाता है और जिसदिन ऑटो उपलब्ध नहीं होता, वे टैक्सी बुक कर लेती हैं। वे कहती हैं, “दिल्ली एनसीआर में यात्रा करना आसान है।” “मैं अपने विकलांग दोस्तों और अपने बॉयफ्रेंड के साथ शिमला और मसूरी भी घूम चुकी हूँ।” वे कहती हैं कि टेक्नालजी ने वास्तव में बाधाओं को दूर करने में उनकी मदद की है।
नेहा को लगता है कि भारत में कॉरपोरेट्स को इस बात से अवगत कराया जाना चाहिए कि नेत्रहीन लोग क्या करने में सक्षम हैं। वे कहती हैं, “उन्हें बस हमें एक सुलभ वातावरण देने की ज़रूरत है।”